मीराबाई पर निबंध (Mirabai Essay In Hindi)

आज हम मीराबाई पर निबंध (Essay On Mirabai In Hindi) लिखेंगे। मीराबाई पर लिखा यह निबंध बच्चो (kids) और class 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, 12 और कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए लिखा गया है।

मीराबाई पर लिखा हुआ यह निबंध (Essay On Mirabai In Hindi) आप अपने स्कूल या फिर कॉलेज प्रोजेक्ट के लिए इस्तेमाल कर सकते है। आपको हमारे इस वेबसाइट पर और भी कही विषयो पर हिंदी में निबंध मिलेंगे, जिन्हे आप पढ़ सकते है।


मीराबाई पर निबंध (Mirabai Essay In Hindi)


प्रस्तावना

कृष्ण भक्ति काव्यधारा की कवियित्रियों में मीराबाई का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। उनकी कविता कृष्ण भक्ति के रंग में रंग कर और गहरी हो जाती है। मीरा बाई सगुण धारा की महत्वपूर्ण भक्त कवि थी।

संत कवि रैदास उनके गुरु थे। मीराबाई कृष्ण जी की भक्त बचपन से ही थी। मीराबाई द्वारा रचित काव्य रूप का जब हम अध्ययन करते है, तो हम देखते है की मीराबाई का ह्रदय पक्ष काव्य के विविध स्वरूपों से प्रवाहित है। इसमें सरलता और स्वच्छंदता है। उसमे भक्ति के विविध भाव – भंगिमाएं है। उसमे आत्मानुभूति है और एक निष्ठता की तीव्रता है।

मीराबाई श्रीकृष्ण की बहुत बड़ी उपासिका होने के कारण वो मात्र श्रीकृष्ण को अपना सब कुछ समझती थी। उन्होंने श्रीकृष्ण जी की मूर्ति को ही अपने मन में बसा के रखा था और उन्हें ही अपना सब कुछ समझती थी। यंहा तक कि भगवान श्रीकृष्ण को वो अपना पति मानती थी।

मीराबाई जी का जन्म

मीराबाई का जन्म 1498 के लगभग राजस्थान के कुड़की गाँव के मारवाड़ रियासत के जिलान्तर्गत मेड़ता में हुआ था। मीरा बाई मेड़ता महाराज के छोटे भाई रत्न सिंह की एकमात्र संतान थी।

मीराबाई जब दो वर्ष की थी, तब ही इनकी माता का देहांत हो गया था। इसलिए इनके दादा जी दूदा राव उन्हें मेड़ता ले कर आ गए और अपनी देखरेख में मीराबाई का पालन – पोषण करने लगे।

मीराबाई श्री कृष्ण की भक्त

कहा जाता है की मीरा बाई के मन में बचपन से ही श्रीकृष्ण की छबि बसी हुई थी। एक बार की बात है की मीराबाई ने खेल ही खेल में भगवान श्रीकृष्ण जी की मूर्ति को अपने ह्रदय से लगाकर उसे अपना दूल्हा मान लिया था। तभी से लेकर आजीवन मीराबाई श्रीकृष्ण जी को ही अपना पति मानती थी।

और तो और श्रीकृष्ण जी को मनाने के लिए मीराबाई मधुर – मधुर गीत गाती थी। श्रीकृष्ण को पति मानकर सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देने वाली मीराबाई को जीवन में अनेकानेक कष्ट झेलने पड़े थे। फिर भी मीराबाई ने इस अपनी अटल भक्ति भावना का निर्वाह करने से कभी भी मुख नहीं मोड़ा।

मीराबाई के बचपन की घटना

मीराबाई का कृष्ण प्रेम उनके जीवन की एक बचपन की एक घटना है और उसी घटना की चरम की बजह से ही वो कृष्णभक्ति में लीन हो गयी। बाल्यकाल में एक दिन उनके पड़ोस में किसी धनवान व्यक्ति के यहां बारात आई थी। सभी स्त्रियां छत पर खड़ी होकर बारात देख रही थी।

मीराबाई भी बारात को देखने के लिए छत पर गयी थी। बारात को देखने के बाद मीराबाई ने उनकी माँ से पूछा की मेरा दूल्हा कोन है। इस पर मीराबाई जी की माँ ने मजाक – मजाक में श्री कृष्ण के मूर्ति के तरफ इशारा करते हुए कह दिया की श्री कृष्ण ही तुम्हारा दूल्हा है।

मीराबाई के मन में ये बात बालपन से ही गाँठ की तरह समा गयी और तब से ही वो सही में श्रीकृष्ण जी को ही अपना पति मानने लगी थी।

मीराबाई का विवाह

मीराबाई आदित्य गुणों की भरमार थी और उन्ही गुणों को देखकर मेवाड़ नरेश राणा संग्राम सिंह ने मीराबाई के घर अपने बड़े बेटे भोजराज के लिए विवाह का प्रस्ताव भेजा। यह प्रस्ताव मीराबाई के परिवार वालो ने स्वीकार कर लिया और भोजराज जी के संग मीराबाई जी का विवाह हो गया।

लेकिन इस विवाह के लिए मीराबाई ने पहले ही मना कर दिया था। लेकिन परिवार वालो के अत्याधिक बल देने पर वो विवाह के लिए तैयार हो गयी। वो फुट – फुट कर रोने लगी लेकिन विदाई के समय श्रीकृष्ण जी की मूर्ति को अपने साथ लेकर चली गयी।

जिसे उनकी माँ ने उनका दूल्हा बताया था। मीराबाई जी ने लज्जा और परम्परा को त्याग कर अपने अनूठे प्रेम और भक्ति का परिचय दिया।

मीराबाई जी के पति की मृत्यु

मीराबाई जी के विवाह को केवल दस वर्ष ही हुए थे की, मीराबाई जी के पति भोजराज जी की मृत्यु हो गयी। पति की मृत्यु के बाद मीराबाई के ऊपर उनके कृष्ण भक्ति को लेकर उनके ससुराल में उनपे कई अत्याचार हुए।

सन 1527 ई. में बाबर और सांगा के युद्ध में मीराबाई जी के पिताजी भी मारे गए और लगभग तभी इनके ससुर जी की भी मृत्यु हो गयी। सांगा की मृत्यु के पश्चात भोजराज के छोटे भाई रत्नसिंह को सिहासन पर बैठाया गया।

अतएव अपने ससुर जी के जीवनकाल में ही मीराबाई विधवा हो गयी थी। सन 1531 ई. में राणा रत्नसिंह की मृत्यु हो गयी और फिर उनके सौतेले भाई विक्रमादित्य राणा बने। मीराबाई को स्त्री होने के नाते, चितोड़ के राजवंश की कुलबधू होने के कारण तथा पति की अकाल मृत्यु होने की बजह से जितना विरोध मीराबाई को सहना पड़ा कदाचित ही किसी अन्य भक्त को सहना पड़ा होगा।

उनकी कृष्ण भक्ति से ना केवल उन्हें अत्याचार सहन करना पड़ा, बल्कि अपना घर तक उनको छोड़ना पड़ा। उन्होंने इस बात का जिक्र अपने काव्य में कई स्थानों पर किया है।

मीराबाई की हत्या का प्रयास

पति की मृत्यु के पश्चात मीराबाई की कृष्णभक्ति दिन व् दिन बढ़ने लगी थी। वे मंदिरों में जाकर कृष्ण भक्तो के सामने कृष्ण जी की उपासना करती थी। और उन्ही के सामने कृष्ण भक्ति में लीन नृत्य करने लगती थी।

मीराबाई की भक्ति कृष्ण जी के प्रति देखकर मीराबाई जी के कहने पर बहुत से कृष्ण भक्त अपने महलो में कृष्ण जी का मंदिर बनवा देते थे। और वहा साधु संतो का आना – जाना शुरू हो जाता था।

मीराबाई का देवर राणा विक्रमादित्य को यह सब बहुत बुरा लगता था। उधा जी भी मीराबाई को समझाते थे पर मीराबाई दिन दुनिया को भूल कर भगवान श्रीकृष्ण में ही रम गयी और वैराग्य धारण कर लिया था।

भोजराज के निधन के बाद सिहासन पर बैठने वाले विक्रमजीत को मीराबाई का साधु संतो के साथ उठना – बैठना बिलकुल पसंद नहीं आ रहा था। तब उन्होंने उन्हें मारने की कोशीश की और उनमे से दो प्रयासों का चित्रण मीराबाई जी ने अपनी कविताओं में किया है।

एक बार फूलो की टोकरी को खोलने पर विषैला साँप भेजा गया, लेकिन उस टोकरी में सांप की जगह श्री कृष्ण जी की मूर्ति निकली। कहते है ना सच्चे भक्त की रक्षा तो स्वयं भगवान करते है। एक अन्य अवसर पर उन्हें खीर के रूप में पिने के लिए विष का प्याला दिया गया, लेकिन उसे पिने के बाद भी मीराबाई को कुछ नहीं हुआ। ऐसी थी मीराबाई की कृष्ण भक्ति।

मीराबाई के रचित काव्य रूप

मीराबाई की काव्यानुभूति आत्मनिष्ठ और अनन्य है। उसमे सहजता के साथ गंभीरता है। वह अपने इष्ट देव श्रीकृष्ण के प्रति सर्व समर्पण के भाव से अपने को सर्वथा प्रस्तुत करती है। मीराबाई ने अपने इष्ट का नाम अपने सद्गुरु की कृपा से ही प्राप्त किया है।

मीराबाई की भक्ति काव्य रचना संसार लौकिक और पारलौकिक दोनों ही दृष्टियों से श्रेठ और रोचक है। मीराबाई की काव्य रचना सूत्र तो लौकिक प्रतीकों और रूपको से बुना हुआ है। लेकिन उसका उदेश्य पारलौकिक चिंतन धारा के अनुकूल है। इसलिए वह दोनों ही दृष्टियो से अपनाने योग्य है।

मीराबाई के काव्य भावपक्ष के अंतर्गत होते है। मिराबाई के काव्य की अभिव्यक्ति अत्यंत मार्मिक और सजीव है। मीराबाई का काव्यस्वरूप का कलापक्ष की भाषा सरल, सुबोध और कहि जटिल है।

इसका मुख्य कारण यह है की मीराबाई जी की काव्य भाषा में ब्रजभाषा, राजस्थानी, पंजाबी, खड़ीबोली, गुजरती आदि है। मीराबाई ने इसके साथ ही कहावतों और मुहवरो के लोक प्रचलित रूप को अपनाया। मीराबाई ने अपने काव्य में अलंकार और रसो का समुचित प्रयोग किया है।

मीराबाई की मृत्यु

मीराबाई की मृत्यु के कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलते है और उनकी मृत्यु को एक रहस्य ही बताया गया है। कहा जाता है की मीराबाई कृष्ण जी की परम् भक्त थी और कहा जाता है की 1547 में द्वारका में वो कृष्ण भक्ति करते – करते श्रीकृष्ण जी की मूर्ति में समां गयी।

उपसंहार

इस प्रकार हम देखते है की मीराबाई एक सहज और सरल भक्तिधारा के स्त्रोत से उत्पन्न हुई विरहिणी कवयित्री थी। जिनकी रचना से संसार में आज भी अनेक काव्य के रचियिता प्रभावित है। भक्तिकाल की इस असाधरण कवयित्री से आधुनिक काल की महादेवी वर्मा इतनी अधिक प्रभावित हुई की उन्हें आधुनिक युग की मीरा की संज्ञा प्रदान की गयी।

इस प्रकार मीराबाई का प्रभाव अत्यंत अद्भुत और आदित्य था, जिसका अनुसरण आज भी किया जाता है। उनके लिखे काव्य श्रीकृष्ण के सभी लीलाओ की व्याख्या करते है। उनके काव्य यही दर्शाते है की मीराबाई ने श्रीकृष्ण जी को अपना पति मानकर उनकी पूजा और उपासना करि।

और तो और यहां तक कहा जाता है की मीराबाई पूर्व जन्म में वृंदावन की एक गोपी थी और उन दिनों वह राधा जी की सहेली थी। वे मन ही मन श्रीकृष्ण जी से प्रेम करती थी। श्रीकृष्ण का विवाह होने के बाद भी उनका लगाव श्रीकृष्ण के प्रति कम नहीं हुआ और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये।

कहा जाता है की उसी गोपी ने मीराबाई के रूप में जन्म फिर से लिया और कृष्ण भक्ति में लीन हो गयी और अंत में कृष्ण जी में ही समा गयी।


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